सोमवार, मार्च 01, 2010

कौन गाँधी? / व्यंग्य - सुजान पंडित

                इस बार गाँधी जयंती को कुछ अलग ढंग से मनाने का मन में विचार आया. पड़ोस के मैदान में टेंट शामियाना लगाया गया. कुछ फूल और आम की पत्तियों से मंच को सजाया गया. मंच पर तिरंगा भी लगा दिया गया. मेरे एक पेंटर मित्र ने गाँधी जी का पोर्टेट बनाने का जिम्मा भी ले लिया. दोस्तों और आस पड़ोस के लोगों को आमंत्रण पत्र भी भेज दिया गया. लेकिन याद आया की मुख्य अतिथि तो हमने ठीक ही नहीं किया जो दीप प्रज्वलित कर मंच की शोभा बढाएगा. सो दोस्तों के सुझाव पर मुख्य अतिथि के लिए सबसे से पहले एक नेताजी के पास गया. नेताजी अपना पर्सनल प्रॉब्लम बताते हुए कहा - मैं २ ओक्टूबर को मौन ब्रत रखता हूँ. कार्यक्रम में जा तो सकता हूँ पर गाँधी वगैरह पर कुछ बोलूँगा नहीं. बोलने के लिए यदि किसी को रख सकते हो तो मैं तैयार हूँ. सर आप मुख्य अतिथि होंगे तो जनता आप के मुख से कुछ सुनने की चाहत तो जरुर रखेगी. इसपर वो तैयार नहीं हुए और इनडायरेक्ट वे में आने से साफ मना कर दिए.

              मैंने सोचा दूसरे नेताजी से मिला जाय. उन्होंने भी अपनी डायरी देखकर कहा की रात आठ बजे एक फैशन शो के कार्यक्रम में बतौर मुख्य अतिथि जाना है, यह पहले से तय है, अतः आपके कार्यक्रम में शामिल होना संभव नहीं हो पायेगा. मेरे कहने पर की मेरा कार्यक्रम तो सुबह आठ बजे का है, तो उन्होंने सर के बालों पर हाथ फेरते हुए कहा की नहीं - एक ही दिन में दो कार्यक्रम में जाना संभव नहीं होगा - क्लेश करेगा - अतः किसी और को देखें. 

              मैं एक तीसरे नेताजी के पास यह सोचकर गया की यह तो अभी अभी चुनाव जीतकर नेता बने हैं ये नहीं टालेंगे - जरुर मेरा अनुरोध स्वीकार करेंगे. उन्हें जब गाँधी जयंती के बारे में बताया तो उन्होंने फट से कहा - भैया कौन सा गाँधी. अपने देश में तो कई गाँधी है. मैंने कहा - सर, मोहनदास करमचंद की बात कर रहा हूँ. भई ई मोहनदास कौन है, मैंने तो ये नाम पहले कभी नहीं सुना. देखिये सीधी सी बात है जब मुख्य अतिथि बनावोगे तो कुछो बोलवैबे करोगे ना. भई जिस ब्यक्ति का नाम कभी सुने नहीं हैं, जिनके बारे जानते नहीं उनके बारे बोलेंगे क्या. मेरी सुझाव मानिये और कोनो आइ ए एस, आई पी एस को धरिये, वु सब ठीक से बोल पायेगा, पड़ता लिखता रहता है. मैं मुंह लटकाए नेताजी के द्वार से लौट आया. सोचने लगा किसे पकडा जाय जो मोहनदास करमचंद गाँधी को जनता हो.

             अबकी बार एक सरकारी अफसर के पास गया और उनसे अनुरोध किया. वो तैयार हो गए. लेकिन मुझसे एक भूल हो गई. बातचीत के दौरान मैंने नेताजी की बातें उनसे बता दी, यह सोचकर की बुद्धिजीवी प्राणी है, नेताजी का ओपिनियन सुनकर कुछ कमेन्ट करेगा, लेकिन यह क्या वो तो बात सुनते ही भड़क गए, बोले - अरे साहब जब माननीय नेताजी आने से मना कर दिए हैं तो भला मैं कैसे जाऊँ? मुझे सस्पेंड कराएगा क्या? माफ़ कीजिये किसी और को देखिये.

             मैं परेशान हो गया. समय नहीं था. सुबह आठ बजे गाँधी जयंती का दीप प्रज्जवलित करना है और अभी तक मुख्य अतिथि निश्चित नहीं हुआ. रात भर चिंता से सो ना सका.

               सुबह हुई - कार्यक्रम का समय हो गया. चिंतित मुद्रा में मंच तक यह सोचकर गया की अब जो होगा देखा जायेगा. इतने में पड़ोस का एक भिखारी जो कि लूला था मिल गया, वह भी गाँधी जयंती मनाने आया था. मुझे परेशान देखकर भांप गया - जरुर कुछ गड़बड़ है, वह मेरे सामने आया और कहा - बाबू जी घबराइये नहीं मैं आपका काम आसन कर दूंगा. इतना कहते हुए वह मंच पर चढा और जनता से कहा - मैं कोढ़ी-लूला हूँ - मैं दीप प्रज्ज्वलित तो कर नहीं सकता पर गा सकता हूँ - और वह अपनी सुरीली आवाज़ में गाने लगा - वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे ---- इनका गाना सुनते ही सारी जनता खड़ी हो गयी और गाँधी जी के पोर्टेट पर पंक्ति से फूलों का माल्यार्पण करने लगी.

            तभी अचानक एक गर्जन हुआ - और इसी बीच मंच पर गाँधी जी स्वयं परदर्शित हुए. जनता किं कर्तब्य बिमुड हो खड़ी की खड़ी ताकती रही. गाँधी जी ने बहुत शांत स्वरों में कहा - भाइयों एवं बहनों - आज मैं बहुत खुश हूँ. वर्षो से मैं अपनी जयंती देखता आ रहा हूँ और शर्मिंदगी महसूस करता आ रहा हूँ, पर आपने आज मझे सच्ची श्रद्धांजलि दी है. उन्होंने नाराज होकर आगे कहा इस देश ने मेरी तस्बीर डाक टिकट पर छाप दी है, नोटों पर छाप दी है और तो और मेरे जन्म दिन पर पशु-पक्छियों की हत्या बंद करने की एलान कर दी है लेकिन मैंने देखा फिर दूसरे दिन से पुनः हत्याएं होने लगती हैं. क्या सत्य अहिंसा का नारा सिर्फ २ अक्टूबर के लिये मैंने दी थी. क्या नकली नोटों और डाक टिकटों पर अपनी तस्बीर देखने के लिए ही मेरी जन्म हुई थी. अब आप लोगों से अनुरोध है २ अक्टूबर को छुट्टी न मनाएं. आप लोग काम काज करें तथा मेरी जयंती मनाकर समय की बर्बादी न करें और मुझे भी चैन से रहने दें. मैं यह आडम्बर देख देख कर थक गया हूँ - धन्यवाद्.

             इतना कहते हुए गाँधी जी मंच से ओझल हो गए. जनता और मैं उसी समय प्रण कर लिया कि अगले वर्ष गाँधी जयंती फिर आएगी - उस दिन गाँधी जी कि बात जरुर याद रखूँगा. लेकिन फिर सोचने लगा - क्या देश मानेगी? 

प्रकाशित : २ अक्टूबर २००९ - rachanakar.blogspot.com

कोई टिप्पणी नहीं: